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महाभारत युद्ध आरम्भ होबे के ठीक पहिले भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के जे उपदेश देलन ऊ श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से प्रसिद्ध है । ई महाभारत के भीष्मपर्व के अंग है । गीता मे १८ अध्याय आउ ७०० श्लोक है ।[1] गीता के गणना प्रस्थानत्रयी मे कैल जा है, जेकरा मे उपनिषद् आअ ब्रह्मसूत्रो सम्मिलित है । अतएव भारतीय परम्परा के अनुसार गीता के स्थान ओही है जे उपनिषद आउ धर्मसूत्र सब के है । उपनिषद को गौ आउ गीता के ओकर दुग्ध कहल गेल है । एकर तात्पर्य ई है कि उपनिषद के जे अध्यात्म विद्या हलै, ओकरा गीता सर्वांश मे स्वीकार करऽ है । उपनिषद के अनेक विद्या गीता मे है । जैसे, संसार के स्वरूप के सम्बन्ध मे अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय मे अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय मे अक्षरपुरुष विद्या आअ अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय मे क्षरपुरुष विद्या । ई प्रकार वेद के ब्रह्मवाद आउ उपनिषद के अध्यात्म, ई दोनो के विशिष्ट सामग्री गीता मे संनिविष्ट है । ओकरे पुष्पिका के शब्द मे ब्रह्मविद्या कहल गेल है ।[2]

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धर्म (परम् ब्रह्म परम पिता परमेश्वर परमात्मा (ॐ) द्वारा बनावल संविधान) के पुस्तक है ।
कृष्ण आउ अर्जुन कुरुक्षेत्र मे
जानकारी
धर्म सनातन धर्म
लेखक वेदव्यास
भाषा संस्कृत
अवधि तृतीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व
अध्याय १८
श्लोक/आयत ७००

महाभारत के युद्ध के समय जखनी अर्जुन युद्ध करे से मना करऽ हथिन तखनी श्रीकृष्ण उनका उपदेश दे हथिन आउ कर्म एवं धर्म के सच्चा ज्ञान से अवगत करावऽ हथिन । श्रीकृष्ण के इहे सब उपदेश के श्रीमद्भगवद्गीता नामक ग्रन्थ मे संकलित कैल गेल है ।

गीता के १८ अध्याय

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श्रीमद्भागवद्गीता के सब १८ अध्याय के संक्षिप्त परिचय क्रमशः निम्नप्रकार से है:-

  • १. अर्जुन विषादयोग (सेना के सैन्य निरीक्षण)
  • २. सांख्ययोग (गीता के सार)
  • ३. कर्मयोग
  • ४. ज्ञान कर्म संन्यासयोग (दिव्य ज्ञान)
  • ५. कर्म संन्यासयोग (कर्म वैराग्य योग)
  • ६. आत्मसंयमयोग (ध्यान योग)
  • ७. ज्ञान विज्ञानयोग (भगवद्ज्ञान के प्राप्ति)
  • ८. अक्षर ब्रह्मयोग (भगवान के प्राप्ति)
  • ९. राजविद्या राजगुह्ययोग (परम गुप्त ज्ञान)
  • १०. विभूतियोग (श्रीभगवान का ऐश्वर्य)
  • ११. विश्वरूप दर्शनयोग (विराट रूप)
  • १२. भक्तियोग
  • १३. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभागयोग (प्रकृति, पुरुष एवं चेतना)
  • १४. गुणत्रय विभागयोग (प्रकृति के तीन गुण)
  • १५. पुरुषोत्तमयोग
  • १६. दैवासुर समद्विभागयोग ( दैवी एवं आसुरी स्वभाव)
  • १७. श्रद्धात्रय विभागयोग (श्रद्धा के विभाग)
  • १८. मोक्ष संन्यासयोग (उपसंहार-संन्यास के सिद्धि)

प्रथम अध्याय

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प्रथम अध्याय के नाम अर्जुनविषादयोग है । ऊ गीता के उपदेश के विलक्षण रंगमंच प्रस्तुत करऽ है जेकरा मे श्रोता आउ वक्ता दुनही कुतूहल शान्ति ला न वरन् जीवन के प्रगाढ़ समस्या के समाधान ला प्रवृत्त होवऽ हथिन । शौर्य आअ धैर्य, साहस आउ बल ई चारो गुण के प्रभूत मात्रा से अर्जुन के व्यक्तित्व बनल हलै आउ ई चारो के ऊपरे दु गुण आउ हलै, एक क्षमा, दोसर प्रज्ञा । बलप्रधान क्षात्रधर्म से प्राप्त होबे वाला स्थिति मे पहुँचके सहसा अर्जुन के चित्त पर एक दोसरे प्रकार के मनोभाव के आक्रमण होलै, कार्पण्य के । एक विचित्र प्रकार के करुणा ओकर मन मे भर गेलै आउ ओकर क्षात्र स्वभाव लुप्त हो गेलै । जे कर्तव्य ला कटिबद्ध होलै हल ओकरा से ऊ विमुख हो गेलै । ऊपरे से देखे पर त ई स्थिति के पक्ष मे ओकर तर्क धर्मयुक्त लौकऽ है, किन्तु ओकर अपने ओकरा कार्पण्य दोष कहकै हे आउ एही मानकै है कि मन के ई कायरता के चलते ओकर जन्मसिद्ध स्वभाव उपहत या नष्ट हो गेलै हल । ऊ निर्णय न करे पारित हलै कि युद्ध करै अथवा वैराग्य ले लेइ । की करै, की नै करै, कुछो बुझाइत न हलै । ई मनोभाव के चरम स्थिति मे पहुँचके ऊ धनुषबाण एक दने डाल देलकै ।

कृष्ण अर्जुन के ऊ स्थिति देखके जान लेलन कि अर्जुन के देह बेस है किन्तु युद्ध आरम्भ होबे से पहिलहीं ऊ अद्भुत क्षत्रिय के मनोबल टूट गेलै हे । बिन मन के ई देह खड़ नै रह सकतै । अतएव कृष्ण के सामने एक गुरु कर्तव्य आ गेलै । अतः तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म के चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, ओकरा मे जीवन के स्थिति से, दुनो के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से आउ ऊ सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन के उद्धार कैल, एही उनकर लक्ष्य होलै । एही तत्वचर्चा के विषय गीता है । पहिला अध्याय मे सामान्य रीति से भूमिका रूप मे अर्जुन भगवान से अपन स्थिति कह देलन ।

  • प्रथम अध्याय मे दुनो सेना के वर्णन कैल जा है ।
  • शंख बजावे के पश्चात अर्जुन सेना के देखे ला रथ के सेना के मध्य ले जाए ला कृष्ण से कहऽ हथिन ।
  • तखनी मोहयुक्त होके अर्जुन कायरता एवं शोक युक्त वचन कहऽ हथिन ।

द्वितीय अध्याय

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दोसर अध्याय के नाम सांख्ययोग है । एकरा मे जीवन कु दु प्राचीन संमानित परम्परा के तर्क द्वारा वर्णन ऐलै हे । अर्जुन के ई कृपण स्थिति मे रोवित देखक कृष्ण उनका ध्यान देलौलन हे कि ई प्रकार के क्लैव्य आउ हृदय के क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन नियन वीर ला उचित न ।

कृष्ण अर्जुन के अखनी तक देल सब युक्ति के प्रज्ञावाद के झूठा रूप कहलन । उनकर युक्ति ई है कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म आउ स्वभाव से होवे वाला संसार के सब घटना आउ स्थिति के अनिवार्य रूप से स्वीकार करऽ है । जीअल आउ मरल, जन्म लेल आउ बढ़ल, विषय के आएल आउ गेल । सुख आउ दुख के अनुभव, ई सब त संसार मे होइते है, एकरे प्राचीन आचार्य पर्यायवाद के नामो दे हलथिन । काल के चक्रगति ई सब स्थिति के लावऽ है आउ ले जा है । जीवन के ई स्वभाव के जान लेबे पर फिन शोक नै होवै । एही भगवान के व्यंग्य है कि प्रज्ञा के दृष्टिकोण के मानतहुँ अर्जुन ई प्रकार के मोह मे काहे पड़ गेल हे ।

ऊपरे के दृष्टिकोण के एक आवश्यक अंग जीवन के नित्यता आउ शरीर के अनित्यता हलै । नित्य जीव ला शोक कैल ओतने व्यर्थ है जेता अनित्य शरीर के बचावे के चिन्ता । ई दुनो अपरिहार्य है । जन्म आउ मृत्यु पारी पषरी से होइबे करऽ है, ऐसन समझके शोक कैल उचित नै है ।

फिन एक दोसर दृष्टिकोण स्वधर्म के है । जन्मे से प्रकृति सब लागी एक धर्म नियत कर देलकै हे । ओकरा मे जीवन के मार्ग, इच्छा के परिधि, कर्म के शक्ति सब कुछ आ जा है । एकरा से निकल के नै भागल जा सकऽ है । कौनो भागै त प्रकृत्ति ओकरा फिन खींच ले है ।

ई प्रकार काल के परिवर्तन या परिमाण, जीव के नित्यता आउ अपन स्वधर्म या स्वभाव जौन युक्ति से भगवान् अर्जुन के समझौलन हे ओकरा ऊ सांख्य के बुद्धि कहलन हे । एकरा से आगे अर्जुन के प्रश्न न करहुँ पर ऊ योगमार्ग के बुद्धियो के वर्णन कैलन । ई बुद्धि कर्म या प्रवृत्ति मार्ग के आग्रह के बुद्धि है एकरा मे कर्म करित कर्म के फल के आसक्ति से अपना के बचावल आवश्यक है । कर्मयोगी ला सबसे बड़ डर एही है कि ऊ फल के इच्छा के दलदल मे फँस जा है; ओकरा से ओकरा बचे के चाही ।

अर्जुन के संदेह होलै कि का ई प्रकार के बुद्धि प्राप्त कैल सम्भव है । व्यक्ति कर्म करे आउ फल न चाहे त ओकर कौन स्थिति होतै, ई एक व्यावहारिक शंका हलै । ऊ पूछलन कि ई प्रकार के दृढ़ प्रज्ञावाला व्यक्ति जीवन के व्यवहार कैसे करऽ है? आएल, गेल, खाएल, पीअल, कर्म कैल, ओकरा मे लिप्त होहुँ के निर्लेप कैसे रहल जा सकऽ है? कृष्ण केते प्रकार के बाह्य इन्द्रि सब के अपेक्षा मन के संयम के व्याख्या कैलन हे । काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष के द्वारा मन के सौम्यभाव बिगड़ जा है आउ इन्द्रि वश मे नै रहै । इन्द्रियजये सबसे बड़ आत्मजय है । बाहरे से कौनो विषय के छोड़ो दे तैयो भीतरे के मन नै मानै । विषय के स्वाद जखनी मन से जा है, तखनिये मन प्रफुल्लित, शान्त आउ सुखी होवऽ है । समुद्र मे नदी आके मिलऽ है पर ऊ अपन मर्यादा नै छोड़ै । ऐसहीं संसार मे रहित, ओकर व्यवहार के स्वीकारित, अनेक कामना के प्रवेश मन मे होवित रह है । किन्तु ओकरा सब से जेकर मन अपन मर्यादा नै भुलाई ओकरे शान्ति भेटऽ है । एकरा प्राचीन अध्यात्म परिभाषा मे गीता मे ब्राह्मीस्थिति कहकै हे ।

  • अर्जुन के कायरता के विषय मे अर्जुन कृष्ण संवाद
  • सांख्ययोग
  • कर्मयोग
  • स्थिर बुद्धि व्यक्ति के गुण

तृतीय अध्याय

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ई प्रकार सांख्य के व्याख्या उत्तर सुनके कर्मयोग नामक तीसरा अध्याय मे अर्जुन ई विषय मे आउ गहरा उतरे ला स्पष्ट प्रश्न कैलन कि सांख्य आउ योग ई दुनो मार्ग मे अपने केकरा बढ़िया मानऽ हथिन आउ मैं ई दुनो मे से केकरा अपनाऊँ ई निश्चित काहे न कहथिन? एकरा पर कृष्णो ओतने स्पष्टता से उत्तर देलन कि लोक मे दु निष्ठा या जीवनदृष्टि है-सांख्यवादी ला ज्ञानयोग है आउ कर्ममार्गी ला कर्मयोग है । एहाँ कोनो व्यक्ति कर्म छोड़े न सकऽ है । प्रकृति तीनो गुण के प्रभाव से व्यक्ति के कर्म करे ला बाध्य करऽ है । कर्म से बचे वाला के प्रति एक बड़ शंका है, ऊ ई कि ऊ ऊपरे से त कर्म छोड़ बैठऽ हे पर मने मन ओकरा मे डूबल रहऽ हे । ई स्थिति असह्य है आउ एकरा कृष्ण गीता मे मिथ्याचार कहलन हे । मन मे कर्मेद्री के रोकके कर्म कैल सरल मानवीय मार्ग है । कृष्ण चुनौती के रूप मे एहाँ तक कह देलन कि कर्म बिन त खाए ला अन्नो न भेट सकत । फिन कृष्ण कर्म के विधान के चक्र के रूप मे उपस्थित कैलन । न खाली सामाजिक धरातल पर भिन्न व्यक्ति के कर्मचक्र अर नियन आपिस मे पिरोएल है बल्कि पृथ्वी के मनुष्य आउ स्वर्ग के देवता दुनो के सम्बन्धो कर्मचक्र पर आश्रित है । प्रत्यक्ष है कि एहाँ मनुष्य कर्म करऽ है, कृषि करऽ है आउ दैवी शक्ति वृष्टि के जल भेजऽ है । अन्न आउ पर्जन्य दुनो कर्म से उत्पन्न होवऽ है । एक मे मानवीय कर्म, दोसर मे दैवी कर्म । फिन कर्म के पक्ष मे लोकसंग्रह के युक्ति देल गेल हे, अर्थात् कर्म बिन समाज के ढाँचा खड़ा न रह सकऽ हे । जे लोक के नेता है, जनक नियन ज्ञानी है, ओहु कर्म मे प्रवृत्ति रखऽ है । कृष्ण स्वयं अपने दृष्टान्त देके कहलन कि हम नारायण के रूप हियै, हमरा ला कुछ कर्म शेष न है । तैयो तन्द्रारहित होके कर्म करऽ हियै आउ अन्य लोग हमर मार्ग पर चलऽ हथिन । अन्तर एतने है कि जे मूर्ख है ऊ लिप्त होके कर्म करऽ है पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करऽ है । गीता मे एहैं एक साभिप्राय शब्द बुद्धिभेद है । अर्थात् जे साधारण समझ के लोग कर्म मे लगल हथिन ऊ ओह मार्ग से उखाड़ल उचित न, काहेकि ऊ ज्ञानवादी बन न सकत, आउ यदि उनकर कर्मो छूट गेलै त ऊ दुनो दने से भटक गेलन ।

  • नित्य कर्म करे वाला के श्रेष्ठता ।
  • यज्ञादि कर्म के आवश्यकता ।
  • अज्ञानी आउ ज्ञानी के लक्षण ।
  • काम के निरोध के विषय ।

चतुर्थ अध्याय

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'चौथा अध्याय मे जेकर नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, ई बातावल गेलै है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करतहुँ कर्मसंन्यास के फल कौन उपाय से प्राप्त कैल जा सक है । हिंये गीता के ऊ प्रसिद्ध आश्वासन है कि जखनी जखनी धर्म के ग्लानि होवऽ है तखनी तखनी मनुष्य के बीच भगवान के अवतार होवऽ है, अर्थात् भगवान के शक्ति विशेष रूप से मूर्त होवऽ है ।

हिंये एक वाक्य विशेष ध्यान देवे योग्य है- क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा (४१२) । ‘कर्म से सिद्धि’- एकरा से बड़का प्रभावशाली जय सूत्र गीतादर्शन मे नै है । किन्तु गीतातत्व ई सूत्र मे एतना सुधार आउ करऽ है कि ऊ कर्म असंग भाव से अर्थात् फलासक्ति से बचके कैल चाही ।

भगवान बताव हथिन कि सबसे पहिले हम ई ज्ञान भगवान सूर्य के देलियै हल । सूर्य के पश्चात् गुरु परम्परा द्वारा आगे बढ़लै । किन्तु अखनी ई लुप्तप्राय हो गेलै हे । अखनी ओही ज्ञान हम तोरा बतावे जाइत हियौ । अर्जुन कहऽ हथिन कि अपने के त जन्म हाले मे होलै हे त अपने ई सूर्य से कैसे कहली? तखनी श्री भगवान कहलन हे कि तोर आउ हमर अनेक जन्म होलै किन्तु तोरा याद नै पर हमरा याद है ।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥

श्री कृष्ण कहऽ हथिन की जखनी जखनी धर्म के हानि आअ अधर्म के वृद्धि होवऽ है तखनी तखनी हम अपन स्वरूप के रचना करऽ हियै ॥४-७॥

साधु सब के रक्षा ला, दुष्कर्मी सब के विनाश करे ला, धर्म के स्थापना ला हम युग युग मे मानव के रूप मे अवतार ले हियै ॥४-८॥

  • कर्म, अकर्म आउ विकर्म के वर्णन ।
  • यज्ञ के स्वरूप ।
  • ज्ञानयज्ञ के वर्णन ।

पचमा अध्याय

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पचमा अध्याय कर्मसंन्यास योग नामक मे फिन ओही युक्ति आउ दृढ़ रूप मे कहल गेलै हे । एकरा मे कर्म के साथे जे मन के सम्बन्ध है, ओकर संस्कार पर या ओकरा विशुद्ध करे पर विशेष ध्यान दियावल गेलै हे । एहु कहल गेलै हे कि ऊँच धरातल पर पहुँचके सांख्य आउ योग मे कौनो भेद न रह जा है । कौनो एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चली त समान फल प्राप्त होवऽ है । जीवन के जेतना कर्म है, सबके समर्पण कर देवे से व्यक्ति एकदम शान्ति के ध्रुव बिन्दु पर पहुँच जा है आउ जल मे फुलाएल कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नै होवै ।

भगवान श्रीकृष्ण ई अध्याय मे कर्मयोग आउ साधु पुरुष के वर्णन करऽ हथिन । आउ बतावऽ हथिन कि हम सृष्टि के हर जीव मे समान रूप से रहऽ हियै अतः प्राणी के समदर्शी होवे के चाही ।

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।।

शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:

"ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण मे आउ चाण्डाल मे तथा गाय, हाथी एवं कुत्तो मे समरूप परमात्मा के देखे वाला होवऽ है ।"

छठा अध्याय

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छठा अध्याय आत्मसंयम योग है जेकर विषय नामे से प्रकट है । जेतना विषय है ऊ सबसे इन्द्री के संयम-एही कर्म आउ ज्ञान के निचोड़ है । सुख मे आउ दुख मे मन के समान स्थिति, एकरे योग कहल जा है ।

सतमा अध्याय

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सतमा अध्याय के संज्ञा ज्ञानविज्ञान योग है । ई प्राचीन भारतीय दर्शन के दु परिभाषा है । ओकरो मे विज्ञान शब्द वैदिक दृष्टि से बहुते महत्वपूर्ण हलै । सृष्टि के नानात्व के ज्ञान विज्ञान है आउ नानात्व से एकत्व दने के प्रगति ज्ञान है । ई दुनो दृष्टि मानव ला उचित है । ई प्रसंग मे विज्ञान के दृष्टि से अपरा आउ परा प्रकृति के ई दु रूप के जे सुनिश्चित व्याख्या एहाँ गीता देलकै हे, ऊ अवश्य ध्यान देबे योग्य है । अपरा प्रकृति मे आठ तत्व है, पंचभूत, मन, बुद्धि आउ अहंकार । जौन अंड से मानव के जन्म होवऽ है । ओकरा मे ई आठो रहऽ है । किन्तु ई प्राकृत सर्ग है अर्थात् ई जड़ है । एकरा मे ईश्वर के चेष्टा के सम्पर्क से जे चेतना आवऽ है ओकरा परा प्रकृति कहल जा है; ओही जीव है । आठ तत्व के साथे मिलके जीवन नौमा तत्व हो जा है । ई अध्याय मे भगवान के अनेक रूप के उल्लेख कैल गेलै हे जिनकर आउ विस्तार विभूतियोग नामक दसमा अध्याय मे आवऽ है । एहैं विशेष भगवती दृष्टियो के उल्लेख है जेकर सूत्र-वासुदेव: सर्वमिति, सब वसु या शरीर मे एके देवतत्व है, ओकरे संज्ञा विष्णु है । किन्तु लोक मे अपन अपन रुचि के अनुसार अनेक नाम आउ रूप मे ओकरा एक देवतत्व के उपासना कैल जा है । ऊ सब ठीक है । किन्तु बढ़ियाँ एही है कि बुद्धिमान मनुष्य ऊ ब्रह्मतत्व के चिन्हे जे अध्यात्म विद्या के सर्वोच्च शिखर है ।

पंचतत्व, मन, बुद्धियो हम हियै । हमही संसार के उत्पत्ति करऽ हियै आउ विनाशो हमही करऽ हियै । हमर भक्त चाहे जौन प्रकार भजे परन्तु अन्ततः हमरे प्राप्त होवऽ है । हम योगमाया से अप्रकट रहऽ हियै आउ मुर्ख हमरा खाली साधारण मनुष्ये समझऽ है ।

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।७.२१।।

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।७.२६।।

अठमा अध्याय

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अठमा अध्याय के संज्ञा अक्षर ब्रह्मयोग है । उपनिषद मे अक्षर विद्या के विस्तार होलै । गीता मे ऊ अक्षरविद्या के सार कह देल गेलै हे-अक्षर ब्रह्म परमं, अर्थात् परब्रह्म के संज्ञा अक्षर है । मनुष्य, अर्थात् जीव आउ शरीर के संयुक्त रचने के नाम अध्यात्म है । जीवसंयुक्त भौतिक देह के संज्ञा क्षर है आउ खाली शक्तितत्व के संज्ञा आधिदैवक है । देह के भीतरे जीव, ईश्वर आउ भूत ई तीन शक्ति मिलके जौन प्रकार कार्य करऽ है ओकरा अधियज्ञ कहल जा है । गीताकार दु श्लोक मे (८।३-४) ई छौ पारिभाषा के स्वरूप बान्ध देलकै हे । गीता के शब्द मे ॐ एकाक्षर ब्रह्म है (८।१३) ।

नवम अध्याय

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नौमा अध्याय के राजगुह्ययोग कहल गेलै हे, अर्थात् ई अध्यात्म विद्या विद्याराज्ञी है आउ ई गुह्य ज्ञान सबमे श्रेष्ठ है । राजा शब्द के एक अर्थ मनो हलै । अतएव मन के दिव्य शक्तिमय के कौन प्रकार ब्रह्ममय बनावल जाय, एकरे युक्ति राजविद्या है । ई क्षेत्र मे ब्रह्मतत्व के निरूपणे प्रधान है, ओकरु से व्यक्त जगत के बारम्बार निर्माण होवऽ है । वेद के समस्त कर्मकाण्ड यज्ञ, अमृत, आउ मृत्यु, सन्त आउ असन्त, आउ जेतनो देवी देवता है, सबके पर्यवसान ब्रह्म मे है । लोक मे जे अनेक प्रकार के देवपूजा प्रचलित है, ओहु अपन अपन स्थान मे बेस है, समन्वय के ई दृष्टि भागवत आचार्य के मान्य हलै, वस्तुत: ई उनकर बड़ शक्ति हलै । एही दृष्टिकोण के विचार या व्याख्या दसमा अध्याय मे पाएल जा है ।

दसमा अध्याय

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दसमा अध्याय के नाम विभूतियोग है। एकर सार ई है कि लोक मे जेतना देवता हथिन, सब एके भगवान, के विभूतियाँ हथिन, मनुष्य के समस्त गुण आउ अवगुण भगवान के शक्तिये के रूप है । बुद्धि से ई सभ छुटभैए देवता के व्याख्या चाहे न हो सके किन्तु लोक मे त ऊ हैए हथिन । कौनो पीपल के पूजित है, कौनो पहाड़ के, कौनो नदी या समुद्र के, कौनो ओकरा मे रहेवाला मछली, कछु के । ऐसे केतना देवता हथिन, एकर कौनो अन्त न । विश्व के इतिहास मे देवता के ई भरमार सर्वत्र पाएल जा है । भागवत इनकर सत्ता के स्वीकारित सबके विष्णु के रूप मानके समन्वय के एक नया दृष्टी प्रदान कैलक । एकरे नाम विभूतियोग है । जे सत्व जीव बलयुक्त अथवा चमत्कारयुक्त है, ऊ सब भगवान के रूप है । एतना मान लेबे से चित्त निर्विरोध स्थिति मे पहुँच जा है ।

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।

कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ ७ ॥

इगारहमा अध्याय

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११मा अध्याय के नाम विश्वरूपदर्शन योग है । एकरा मे अर्जुन भगवान के विश्वरूप देखलन । विराट रूप के अर्थ है मानवीय धरातल आउ परिधि के ऊपर जे अनन्त विश्व के प्राणवन्त रचनाविधान है, ओकर साक्षात दर्शन । विष्णु के जो चतुर्भुज रूप है, ऊ मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है ।

जखनी अर्जुन भगवान के विराट रुप देखलन त उनकर मस्तक के विस्फोटन होबे लगल । ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’ एही घबराहट के वाक्य उनकर मुख से निकलल आउ ऊ प्रार्थना कैलन कि मानव ला जे स्वाभाविक स्थिति ईश्वर रखलन हे, ओही पर्याप्त है ।

बारहमा अध्याय

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१२मा अध्याय के नाम भक्ति योग है जे जाने योग्य है । जेकरा जानके मनुष्य परमानन्द के प्राप्त हो जा है अर्थात ऊ परमात्मे सत्य है ।

तेरहमा अध्याय

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१३मा अध्याय मे एक सीधा विषय क्षेत्र आउ क्षेत्रज्ञ के विचार है । ई शरीर क्षेत्र है, ओकरा जानेवाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है ।

चौदहमा अध्याय

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१४मा अध्याय के नाम गुणत्रय विभाग योग है । ई विषय समस्त वैदिक, दार्शनिक आउ पौराणिक तत्वचिन्तन के निचोड़ है- सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको के अनेक व्याख्या है । गुण के साम्यावस्था के नाम प्रधान या प्रकृति है । गुण सब के वैषम्ये से वैकृत सृष्टि के जन्म होवऽ है । अकेले सत्व शान्त स्वभाव से निर्मल प्रकाश नियन स्थिर रहऽ है आउ अकेले तमो जड़वत निश्चेष्ट रहऽ है । किन्तु दुनो के बीचे मे छाया होएल रजोगुण उनका चेष्टा के धरातल पर खीँच लावऽ है । गति तत्व के नामे रजस है ।

पन्द्रहमा अध्याय

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पन्द्रहमा अध्याय के नाम पुरुषोत्तमयोग है । एकरा मे विश्व के अश्वत्थ के रूप मे वर्णन कैल गेलै हे । ई अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तारवाला है । देश आउ काल मे एकर कौनो अन्त न है । किन्तु एकर जे मूल या केन्द्र है, जेकरा ऊर्ध्व कहल जा है, ऊ ब्रह्मे है एक दने ऊ परम तेज, जे विश्वरूपी अश्वत्थ के जन्म दे है, सूर्य आउ चन्द्र के रूप मे प्रकट है, दोसर दने ओही एक एक चैतन्य केन्द्र मे या प्राणि शरीर मे आएल है । जैसन गीता मे स्पष्ट कहल है-अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: (१५.१४) । वैश्वानर या प्राणमयी चेतना से बढ़के आउ दोसरा रहस्य न है । नर या पुरुष तीन है- क्षर, अक्षर आऊ अव्यय । पंचभूत के नाम क्षर है, प्राण के नाम अक्षर है आउ मनस्तत्व या चेतना के संज्ञा अव्यय है । एही तीन नर के एकत्र स्थिति से मानवी चेतना के जन्म होवऽ है, ओकरे ऋषि सब वैश्वानर अग्नि कहलन हे ।

सोलहमा अध्याय

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सोलहमा अध्याय मे देवासुर सम्पत्ति के विभाग बतावल गेलै हे । आरम्भे से ऋग्वेद मे सृष्टि के कल्पना दैवी आउ आसुरी शक्ति के रूप मे कैल गेलै हे । ई सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप के कल्पना है, एक बेस आउ दोसर खराब । एक प्रकाश मे, दोसरा अन्धकार मे । एक अमृत, दोसरा मर्त्य । एक सत्य, दोसरा अनृत ।

सत्रहमा अध्याय

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१७ मा अध्याय के संज्ञा श्रद्धात्रय विभाग योग है । एकर सम्बन्ध सत, रज आउ तम, ई तीने गुण से है, अर्थात् जेकरा मे जौन गुण के प्रादुर्भाव होवऽ है, ओकर श्रद्धा या जीवन के निष्ठा ओइसने बन जा है । यज्ञ, तप, दान, कर्म ई सब तीन प्रकार के श्रद्धा से संचालित होवऽ है । एहाँ तक कि आहारो तीन प्रकार के है । उनकर भेद आअ लक्षण गीता एहाँ बतैलक हे ।

अट्ठारहमा अध्याय

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१८ मा अध्याय के संज्ञा मोक्षसंन्यास योग है । एकरा मे गीता के समस्त उपदेश के सार एवं उपसंहार है । एहाँ पुन: बलपूर्वक मानव जीवन ला तीन गुण के महत्व कहल गेलै हे । पृथ्वी के मानव मे आउ स्वर्ग के देवता मे कौनो ऐसा न जे प्रकृति के चलैते ई तीन गुण से बचल हो । मनुष्य के बड़ी देख भागके चलना आवश्यक है जेकरा से ऊ अपन बुद्धि आउ वृत्ति के बुराई से बचा सके आउ की कार्य है, की अकार्य है, ओकरा पहचान सके । धर्म आउ अधर्म के, बन्ध आउ मोक्ष के, वृत्ति आउ निवृत्ति के जे बुद्धि ठीक से पहचनऽ है, ओही सात्विकी बुद्धि है आउ ओही मानव के सच्ची उपलब्धि है ।

ई प्रकार भगवान जीवन ला व्यावहारिक मार्ग के उपदेश देके अन्त मे ई कहलन हे कि मनुष्य के चाही कि संसार के सब व्यवहार के सच्चाई से पालन करित, जे अखण्ड चैतन्य तत्व है, जेकरा ईश्वर कहल जा है, जे प्रत्येक प्राणी के हृद्देश या केन्द्र मे विराजमान है, ओकला मे विश्वास रखे, ओकर अनुभव करे । ओही जीव के सत्ता है, ओही चेतना है आउ ओही सर्वोपरि आनन्द के स्रोत है ।

  1. "भगवत गीता: भगवद गीता के सभी अध्याय व श्लोक". हिन्दू लाइव (Hindi मे). मूलसे 19 नवम्बर 2020 के पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 जून 2020.
  2. "Geeta Upadesh in Hindi, गीता ज्ञान, Geeta Gyan in Hindi, Geeta Saar in Hindi". नवभारत टाइम्स (Hindi मे). मूलसे 24 अप्रैल 2020 के पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-06-30.